रमजान का आमद इंसानियत और मिस्किनों की खिदमत का संदेश देता है:-उलेमा हजरात

अररिया:-माहे रमज़ान इस्लाम धर्म के लिए एक माह तक चलने वाला रोजा फर्ज़ का अमल बताया गया है। अरबी का महीना शाबान उल मुअज़्जम के ठीक नौवें माह रमजान उल मुबारक का महीना आता है। ऐसी मान्यता है कि तमाम महीनों का नाम अहले अरब ने रखे हें, लेकिन यह माह अल्लाह ताला खुद अपने लिए बनाया है। उक्त बातें भरगामा प्रखंड अंतर्गत बीरनगर बिसरिया स्थित मदरसा दारुल उलूम फैज़ ए रहमानी के नाजिम मुफ्ती मोहम्मद आरिफ सिद्दीकी साहब वो मदरसा हाजा के सरपरस्त हाजी मोहम्मद उस्मान अब्दुर्रहमान बास्तावाला ने संयुक्त रूप से रमजान के फजीलत के बारे में जानकारी दी। दोनों उलेमाओं द्वारा बताया गया कि रमजान का मतलब अरबी में ‘सोम’ होता है, जिसका मतलब ‘ठहरना’ अर्थात आफताब तुलु (सूर्योदय) से आफताब गुरूब (सूर्यास्त) तक खाने पीने को छोड़ने से है। इस महीने को ‘मौसमे बहार’ यानी नेकियों का महीना भी कहा जाता है। फजर की अज़ान से मगरिब के अजान होने तक भोजन और पानी से बन्दे को दूर रहना होता है। उन्होंने कहा कि रमजान का मतलब सिर्फ खाना पीना छोड़ने तक महदूद नहीं, बल्कि बातिन अर्थात अपने नफ़्स इंद्रियों पर काबू पाना है। आंख,कान, नाक, जुबान और हाथों पर संयम रखने का नाम रोजा है। इस माह की फजीलत के बारे में दोनों उलेमा हजरात कहते हैं कि इस्लाम धर्म के आखिरी नबी हजरत मुहम्मद सल्लल्लाहू वसल्लम ने फरमाया कि यह महीना मेरे रब का है। अल्लाह ताला ने फरमाया की तमाम इबादतों में सबसे पसंदीदा इबादत रमजान का रोज़ा है। रोजा सिर्फ फर्ज ही नहीं, बल्कि इस्लाम का यह पांच रुकून (रोजा, नमाज,हज,ज़कात और तौहीद) में से एक है। रोजा के बारे में कहा जाता है कि ये हमसे पहले की उम्मतों पर भी था, लेकिन एक माह का मुसलसल रोजा आखिरी पैगम्बर हजरत मुहम्मद सल्लल्लाह हु वसल्लम मक्का से मदीना 622 ईस्वी में हिजरत के 18 माह बाद सन दो हिजरी से उम्मत पर फर्ज़ आयद हुआ। तब से लेकर हजरत मोहम्मद (स.)अपनी संक्षिप्त 63 साल की जिंदगी में नौ बार रामजानुल मुबारक महीने में रोजे रखने का उन्हें सआदत हासिल हुआ।           रमजान में रोज़े रखने का मतलब ‘तकवा’ हासिल करना यानी अल्लाह ताला का के प्रति समर्पण और नफ़्स पर नियंत्रण हासिल करना है। जिससे रूहानी फायदे इबादत गुजार जिंदगी जीने में मिलती है। इसका मतलब यह है कि अपनी जिंदगी को ऐसे जियो ताकि आने वाले आखिरत जो हमेशा हमेश के लिए होगी, उस पर पश्चाताप ना करना पड़े। अपने अहंकार, गुरुर और तकब्बुर को तिलांजलि देने का नाम रोज़ा है। रोजा का उद्देश्य को बताते हुए दारुल उलूम फैज़ ए रहमानी के सरपरस्त हाजी मोहम्मद उस्मान अब्दुर्रहमान बस्तावाला वो नाजिम मुफ्ती मोहम्मद आरिफ सिद्दीकी ने संयुक्त रूप से बताया कि रोजा अर्थात आप जब भूख प्यास की तड़प महसूस कर रहे हो, तो उस वक्त उन गरीब मिस्कीन और भूखे लोगों का ख्याल आए, और उनकी भूख को अपने भूख की शिद्दत से जोड़कर महसूस करे, ताकि ऐसे लोगों का आप अपने जीवन में ख्याल रखा करें, असल में यही रमजान की खूबसूरती है। जकात अपनी कमाई का ढाई प्रतिशत हिस्सा गरीबों और मोहताजों में देने का हुक्म दिया गया है, ताकि समाज में आर्थिक विषमता कायम न हो। इस्लाम धर्म के इस सतून सौम (रमजान) रोज़े को तीन भागों में बांटा गया है। पहले 10 रोजे को ‘रहमत’ दूसरा असरा ‘मगफिरत’ और सबसे अंतिम और आखिरी असरा जहन्नम से निजात पाने का माना जाता है। आखिरी असरे में ही लैलतुल कद्र अर्थात अपने बंदों पर रहमतों की वर्षा की रात मानी जाती है। ऐसा माना जाता है कि इसी रोज अल्लाह ताला ने कुरान की आयतों को नाजिल किया किया था। रोजा के बीस दिन गुजरने के बाद 23 रमजान को लैलतुल कद्र की रात मानी जाती है, जबकि कई लोग इसे विषम तिथि में मानते हैं। इस रात की फजीलत यह है कि जो भी बंदे सच्चे दिल से अल्लाह की बारगाह में हाथ उठाता है, उसकी दुआएं कबूल होती है। दोनों उलेमाओं द्वारा रमजान की फजीलत बताते हुए कहा कि हर फर्ज पर 70 गुणा सबाव और हर सजदे पर 15 सौ नेकिया बंदे के नाम किए जाते हैं। एक महीने का रमजान बाकि 11 माह जिंदगी गुजारने का सलीका सीखा जाता है। चूंकि रमजान माह को ‘नजुल ए क़ुरआन’ का महीना भी कहा जाता है, इसलिए इस महीने में एक विशेष नमाज ‘तराबीह’ का एहतेमाम तीसों रमजान तक किया जाता है। यह नमाज ईशा के फर्ज नमाज के बाद वितीर नमाज से पहले पढ़ा जाता है, जिसमें हाफिज ए कुरआन उक्त नमाज में कुरआन पढ़ते हैं,और पीछे मुक्तदि कुरआन की तिलावत को सुनते है। लोगों को कसरत के साथ कुरान नाजरा के साथ ही नहीं, बल्कि तर्जुमा के साथ पढ़ना चाहिए।

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