सरस्वती पूजा पर राठौर की कलम से, चिंताजनक: आस्था पर अश्लीलता भारी:-राठौर

सहरसा:-सरस्वती पूजा शब्द सुनते ही तस्वीर बनती है पढ़ने लिखने वाले छात्र छात्राओं की आस्था से सरोबार गतिविधि की जिसमें वसंत पंचमी के दिन पढ़ाई से जुड़े सामानों को व्यवस्थित ,साफ सफाई को अंजाम दे स्नान कर विधिवत पूजन की, उसमें पुजा से जुड़े गानों का बजना बीच बीच में जय मां शारदे और रुक रुक कर बजती घंटी का अलग ही महत्व । वीणा वादिनी सरस्वती की तस्वीर अथवा मूर्ति पर टकटकी लगाये पूजा संपन्न होने और फिर प्रसाद मिलने का इंतजार अवर्णीय होता है।लेकिन वक्त के साथ यह बदलता चला गया।बदलते दौर के साथ अब नई और चिंताजनक परिभाषा स्थापित हो रही है अश्लीलता, हठधर्मिता, द्रिवर्थी गानों की डीजे पर धूम किसी दूसरी ही आस्था और पूजा को दर्शाती नजर आती हैं। सरस्वती पूजा मूल रूपेण शिक्षा से जुड़े छात्र और शिक्षकों का पावन पर्व है गुजरे दौर में विशेषकर शिक्षा से जुड़े परिसर में ही इसका आयोजन प्रमुखता से होता भी था लेकिन अब हालात सीधे विपरीत परिस्थितियों वाली हो चली है।              शिक्षण संस्थानों के बजाय अन्य स्तरों पर आयोजन की संख्या बढ़ी है लेकिन आयोजन औचित्य से कोसो दूर सिर्फ दिवर्थी गानों, मनोरंजन का केंद्रबिंदु बन कर रह जाता है आस्था दूर दूर तक नजर नहीं आती। बाजारवाद की चपेट में सरस्वती पूजा भी:-विद्या की देवी सरस्वती की पूजा भी बाजारवाद के प्रभाव से अलग नहीं है बल्कि बसंत पंचमी के आसपास तो बाजार पूरी तरह पूजा के सामानों से पटा पड़ा रहता है।हर कोई सजावट के मामले में एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ में लगा प्रतीत होता है जिससे यह पर्व पहले जैसे सामान्य खर्च में निपटने के बजाय बड़े खर्च का माध्यम सा बन गया है। सादगी की जगह आडम्बर की आगोश में समा रही सरस्वती पूजा:-पहले के समय में पुजा सादगी और आस्था की प्रतीक और दर्पण होती थी लेकिन वर्तमान स्थिति सर्वथा भिन्न है पहले जहां उपलब्ध संसाधन केला पेड़, फूल, पत्तियां संग सीमित कागजी सामग्री से सजावट होती थी वहीं केले पत्ते पर कच्चा चावल, केला, गुड़, शकरकंद आदि से बने प्रसाद सरस्वती पूजा का भरपूर आनंद का अहसास कराते थे।लेकिन अब सजावट और प्रसाद के नाम पर मानों शक्ति प्रदर्शन ही होता है। मूर्ति विसर्जन आस्था और श्रद्धा की जगह मनोरंजन का बन गया है माध्यम:-सरस्वती पूजा में जहां एक ओर पहले दिन आस्था से सरोबार हो पूजा अर्चना सम्पन्न होती थी वहीं दूसरे दिन नम आंखों से मूर्ति विसर्जन की परंपरा रही है लेकिन अब मूर्ति विसर्जन नम आंखों से विदाई की जगह नशे की हालत में हिंदी, भोजपुरी अश्लील गानों, डीजे की धुन बेतरतीब डांस में सिमटने लगी है जिससे सामाजिक बंधनों के धागों पर भी चोट पड़ने लगी है। पूजा के औचित्य को बरकरार रखने की जरूरत:-सरस्वती पूजा पूर्ण रूप से छात्र और शिक्षकों के आस्था का पर्व है।यह अपने मूल रूप में सादगी और आस्था से मने यही इसकी सार्थकता भी होगी। यह सामाजिक दायित्व भी है कि सरस्वती पूजा जैसे पावन पर्व को दूषित होने से बचाया जाए अन्यथा भारतीय सांस्कृतिक विरासत की अहम कड़ी यह पूजा अपनी मूल पहचान से कहीं दूर न हो जाए।सरस्वती पूजा के अवसर पर गंभीरता पूर्वक इस पर चिंतन मनन समय की करुण पुकार सी नजर आती है।

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