महर्षि मेंहीं परमहंस महाराज का 140 वी पावन जयंती समारोह धुमधाम से मनाया गया

सहरसा:- शहर के गांधी पथ स्थित संतमत सत्संग मंदिर में बीस वी सदी के महान संत सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस महाराज का 140 वी पावन जयंती समारोह वैशाख शुक्ल चतुर्दशी तदनुसार बुधवार को धुमधाम से मनाया गया।            जयंती समारोह का शुभारंभ प्रातः काल में प्रभात फेरी से किया गया। प्रभात फेरी में महर्षि मेंही परमहंस महाराज का तस्वीर रथ पर सजाकर बैण्ड-बाजे व दर्जनों गाड़ियां के काफिले के साथ महर्षि मेंही के जयघोष के साथ नगर भ्रमण के लिए निकला। नगर भ्रमण के दौरान झीमझीम बारिश मे भी संतमत अनुनीयो ने नारा लगाते हुए कहा कि आज क्या है महर्षि मेंही जन्मदिवस, सब सन्तन की बड़ी बलिहारी-बड़ी बलिहारी, ईश्वर प्राप्ति का मार्ग अपने अंदर है आदि जयघोष के साथ नगर भ्रमण के दौरान लगाया जा रहा हैं जयंती के अवसर विशेष भंडारा का भी आयोजन किया गया जिसमें हजारों श्रद्धालुओं ने प्रसाद ग्रहण किया। इस जयंती समारोह के अवसर पर आयोजित सतसंग मे स्वामी महेशानंद महराज ने सद गुरूदेव के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रकाश डालते हुए कहा कि आजीवन ब्रह्मचारी रहकर ईश्वर की भक्ति में अपना समस्त जीवन बिता देने का संकल्प किया।             ये आरम्भ के अपने गुरु स्वामी रामानन्द की कुटिया आ गये और वहां उनकी निष्ठापूर्वक सेवा करते हुए रहने लगे। जब इन्होंने देखा कि गुरुजी इनकी जिज्ञासाओं का समाधान नहीं कर पा रहे हैं तब ये किन्हीं सच्चे और पूर्ण गुरु की खोज के लिए निकल पड़े। भारत के अनेक प्रसिद्ध धार्मिक स्थानों की इन्होंने यात्राएं की परन्तु कहीं भी इनके चित्त को समाधान नहीं मिला अन्त में इन्हें जब जोतरामराय निवासी बाबू धीरज लाल गुप्ता द्वारा मुरादाबाद निवासी परम संत बाबा देवी साहब और उनकी सन्तमत साधना के विषय में पता लगा तब इनके हृदय में सच्चे गुरु और सच्ची साधना पद्धति के मिल जाने की आशा बंध गयी। बड़ी आतुरतावश बाबा देवी साहब द्वारा निर्दिष्ट दृष्टियोग की विधि भागलपुर नगर के मायागंज निवासी बाबू राजेन्द्रनाथ सिंह से प्राप्त की तो इन्हें बड़ा सहारा मिला। उसी वर्ष विजयादशमी के अवसर पर राजेन्द्र नाथ सिंह ने भागलपुर में ही बाबा देवी साहब से इनकी भेंट कराकर उनके हाथ में इनका हाथ थमा दिया। बाबा देवी साहब जैसे महान संत को पाकर ये निहाल से हो गये।        उनके दर्शन प्रवचन से इन्हें बड़ी शान्ति और तृप्ति का बोध हुआ। सन्तमत सत्संग के प्रचार-प्रसार की ओर विशेष रूप से गया। इन्होंने सत्संग की एक विशेष नियमावली तैयार की फिर क्या था जिला स्तर पर दो दिनों के लिए और अखिल भारतीय स्तर पर तीन दिनों के लिए जगह-जगह वार्षिक सत्संग अधिवेशन होने लगे। इनके अतिरिक्त लोगों द्वारा प्रतिदिन नियत समय पर व्यक्तिगत और जब तब सामूहिक सत्संग, ध्यानाभ्यास भी किया जाने लगा लोग इनके विचारों से प्रभावित होते गये इस तरह क्या बाल, क्या युवा, क्या वृद्ध सभी तरह के लाखों स्त्री-पुरुषों ने इनके मधुर, स्नेहिल और उपकारी व्यक्तित्व से प्रभावित होकर इनके साथ कदम से कदम मिलाकर अध्यात्म पथ पर चलना स्वीकार किया।         आज भारत के विभिन्न राज्यों और नेपाल, जापान, रूस, अमेरिका, स्वीडेन आदि देशों में फैले इनके शिष्यों की संख्या पर्याप्त है।

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