नेहरू ने ग्वादर पोर्ट खरीदने से किया था इनकार, देश को भारी पड़ रही है ‘गलती’

डेस्क:-पाकिस्तान के बलूचिस्तान में स्थित ग्वादर पहली बार साल 1783 में ओमान के कब्जे में आया था। इतिहासकारों के मुताबिक बलूचिस्तान के नवाब खान मीर नूरी नसीर खान बलूच ने इसे मस्कट के राजकुमार सुल्तान बिन अहमद को गिफ्ट किया था। दोनों के बीच यह समझौता भी हुआ था कि अगर राजकुमार सुल्तान ओमान की गद्दी पर बैठेंगे तब वे ग्वादर को वापस कर देंगे।                                    राजकुमार गद्दी पर तो बैठे लेकिन वादे से मुकर गए और ग्वादर करीब 200 सालों तक ओमान के कब्जे में रहा। भारत के बंटवारे के बाद बलूचिस्तान पाकिस्तान में चला गया लेकिन ग्वादर पोर्ट के आस-पास की जमीन 1952 तक पाकिस्तान के कब्जे से बाहर थी। यह वही समय था जब ओमान के सुल्तान ने भारत को ग्वादर पोर्ट बेचने की पेशकश की थी। इंडिया टुडे में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक सुल्तान ने 1956 में सीधे प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को इसे बेचने की पेशकश की थी।                                         ब्रिगेडियर गुरमीत कंवल अपने आर्टिकल द हिस्टॉरिक ब्लंडर ऑफ इंडिया, नो वन टॉक्स अबाउट में लिखते हैं : ग्वादर को ओमान के सुल्तान की तरफ से भारत ही प्रशासित करता था क्योंकि दोनों देशों के बीच संबंध काफी अच्छे थे। इसलिए सुल्तान ने इसे भारत को बेचने का मन बनाया था। ब्रिटिश सरकार के दस्तावेजों के मुताबिक पंडित नेहरू ने तो इसे ठुकरा दिया था, लेकिन भारत का जैन समुदाय ओमान के इस पोर्ट को खरीदने में दिलचस्पी दिखा रहा था। इस बीच जब 1958 में पाकिस्तान को यह पता चला तो उसने अपनी कोशिशें तेज कर दी और ब्रिटेन की मदद से उस वक्त 03 मिलियन पाउंड यानी आज की करेंसी में देखें तो करीब 31 करोड़ रुपए में ग्वादर पोर्ट खरीद लिया।            जबकि चाबहार पोर्ट के लिए भारत और ईरान के बीच करीब 30 हजार करोड़ रुपए की डील हुई है। आज ग्वादर पोर्ट चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर (CPEC) का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है जो चीन को अरब सागर तक पहुंचाने में काफी मददगार है। वहीं भारत इसका शुरू से विरोध करता आया है क्योंकि यह इकोनॉमिक कॉरिडोर पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर यानी पीओके से होकर गुजरता है। विशेषज्ञ का मानना है कि अगर नेहरू ने इसे स्वीकार कर लिया होता तो यह पाकिस्तान में वह भारतीय एरिया होता जिस पर भारत का सीधा लैंड एक्सेस नहीं होता। इसकी स्थिति वैसी ही हो सकती थी जैसी कभी ईस्ट पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) की थी। ऐसे में ग्वादर को पाकिस्तान के हमले से बचाना बेहद मुश्किल हो जाता।                    वहीं दूसरी ओर नेहरू पाकिस्तान के साथ दोस्ताना संबंध की उम्मीद कर रहे थे। विशेषज्ञ मानते हैं कि अगर यह पोर्ट भारत के पास होता तो उसे चाबहार पोर्ट लीज पर लेने की जरूरत नहीं पड़ती। इसके साथ ही मध्य एशियाई देशों के साथ व्यापार में पाकिस्तान की दखलंदाजी भी नहीं होती। ग्वादर पोर्ट के मामले में नेहरू का अस्वीकार आज भारत के लिए अभिशाप बन गया है।            देश इसका दंश झेलने के लिए लाचार है।

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