लुप्त होने के कगार पर ग्रामीण संस्कृति की ध्वजावाहक बैलगाड़ी

ग्रामीण अर्थव्यवस्था के ताने-बाने को तार-तार कर रहा है मशीनीकरण

सहरसा:- देश में ग्रामीण संस्कृति की ध्वजवाहक पर्यावरण मित्र कहे जाने वाले बैलगाड़ी, यांत्रिकीकरण से मानव के जेहन और जीवन से धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है। बैलगाड़ी की संस्कृति को निगलने पर उतारू मशीनीकरण की देंन ट्रैक्टर एवं टेंपो ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था के ताने-बाने को तार-तार कर डाला है। कल तक गांव के कच्चे सड़क, ऊबड़ खाबड़ और टेढ़े रास्ते पर बैलों के कंधों के सहारे चलने वाली बैलगाड़ी की जगह अब ट्रैक्टर ने ले ली है। महत्व को नकारना गलत:-आज भले ही मानव ने बहुत विकास किया है, और बेहतरीन तथा तेज चल वाली गाड़ियां ईजाद की है, लेकिन बैलगाड़ी के महत्व को नहीं नकारा जा सकता। बैलगाड़ी विश्व का सबसे पुराना यातायात एवं सामान ढोने का साधन है। इसकी बनावट भी काफी सरल होती है। स्थानीय कारीगर परंपरागत रूप से इसका निर्णय करते रहे हैं। देश में तो बैलगाड़ियां प्राचीन समय से ही प्रयोग में आने लगी थी। बैलगाड़ी ने हिंदी फिल्मों में भी अपनी विशिष्ट पहचान और जगह बनाई और कई यादगार गीतों का हिस्सा बनी।       पर्यावरण को नुकसान नहीं होता:- बैलगाड़ी जहां ऐसा परिवहन साधन है, जिससे पर्यावरण को कोई नुकसान नहीं होता वहीं मशीनों, ट्रैक्टर, बस और टैम्पो आदि यातायात के साधनों से उत्सर्जन होने वाला जहरीला धुआं मानव स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। ग्रामीण संस्कृति एवं बैलगाड़ी से तालमेल रखने वाली प्रचलित कहावत, लिके लीक गाड़ी चले, लीके चले कपूत, लीक छोड़ तीन चले, शायर, सिंह और सपूत, के बोल शायद ही किसी ग्रामीण किसान को याद हो। इसकी डिजाइन बहुत सरल परंपरागत रूप से इसे स्थानीय संसाधनों से स्थानीय कारीगर बनाते रहे हैं, लेकिन अब भी यह यदा कदा कहीं दिखाई पड़ जाते हैं। बैंकों के पास भी नहीं व्यवस्था सुधारने की योजना:-किसानों का दर्द है कि वर्तमान स्थिति में किसी भी राष्ट्रीयकृत बैंक, ग्रामीण बैंक अथवा निजी वित्तीय संस्थानों के पास दुधारू पशु को छोड़कर बैलों एवं बैलगाड़ी के लिए ऋण स्वरूप वित्तीय संसाधन उपलब्ध कराने की कोई योजना नहीं है। यांत्रिक वाहनों के लिए संस्थान धड़ल्ले से वित्तीय संसाधन ऋण उपलब्ध करवाते हैं। बैंक भी ट्रैक्टरों की खरीद के लिए अनुदान देती है, लेकिन असहाय गरीब किसान के लिए सस्ते एवं सुलभ वाहन बैलगाड़ी के लिए ना तो कोई अनुदान और ना ही वित्तीय सहायता उपलब्ध कराने की कोशिश कर रही है। क्या कहते हैं ग्रामीण:-पहलाम में 5 से 10 परिवार लोहाड़ी का काम करते हैं। उनका कहना है की बैलगाड़ी पर लोहे का फाल चढ़ाना और उसका पहिया बनाना गुजरे जमाने की बात लगती है। गांव में बैलगाड़ी की जगह ट्रैक्टरों ने ले ली है। इससे हम लोगों का कोई मतलब नहीं है।           पहले हर गांव में किसानों के पास अपनी बैलगाड़ी होती थी, हमें बराबर काम मिलता रहता था और रोजी-रोटी भी आसानी से चलती थी। कल तक गांव के कच्चे उबड़, खाबड़ और ठेढ़े रास्ते पर रस्ते पर बैलों के कंधों के सहारे चलने वाली बैलगाड़ी की महत्ता को ट्रैक्टर की तुलना में कमतर नहीं आंका जाना चाहिए। सबसे अगाड़ी हमार बैलगाड़ी कह हांकने वाले निवासी वृद्ध ग्रामीण किसान धंसी हुई आंखें और झुड्डियों वाला चेहरा लिए सूरज झा दुख भरे शब्दों में कहते हैं ट्रैक्टर को गांव के लीक पर दौड़ते और खेत में चलते देखकर ऐसा लगता है कि हमरा धरती माई का करेजा चीरत चाहत है। अब किसानों के पास बैलगाड़ी नही है, कहीं दिखने को मिल जाए बैलगाड़ी तो, बड़ी खुशी मिलती है।

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