एक थे देवाशीष बोस दा

चर्चित पत्रकार डॉ देवाशीष बोस की जयंती पर राठौर की कलम से 

मधेपुरा:-देवाशीष बोस एक ऐसा नाम जो सुनाई देते ही मानस पटल पर एक ऐसा चेहरा बरबस छा जाता है, जो ताउम्र पत्रकारिता, वकालत, उद्घोषणा व समाजसेवा में मधेपुरा, कोसी प्रमण्डल की सीमा को लांघता हुआ सूबे बिहार की पहचान बना। कोर्ट में केस से कुछ देर पहले कार से जाना,बड़े मंचों के संचालन और उनकी आवाज सुनते ही मंच तक लोगों का खींचा जाना,कलम की नोंक पर खबरों से सिस्टम और सत्ता को सलीके में लाने की कला आज भी लोगों के मानस पटल पर जीवंत है।सफलता के शिखरत्व को चूमने वाले लोगों में बहूत कम ही लोग ऐसे होते हैं, जो बिना किसी विरासत के खुद को विपरित परिवेश में भावी पीढ़ी के आदर्श के रूप में स्थापित कर पाते हैं। ऐसे ही में एक शख्सियत के रूप में डाॅ देवाशीष बोस का भी नाम आता है। डाॅ बोस को विशेषकर कोसी प्रमंडल में पत्रकारिता के विभिन्न रुपों को स्थापित करने का ही श्रेय नहीं जाता बल्कि अपने दीर्घ पत्रकारिता काल में भावी पीढ़ी को और समृद्ध करने के भागिरथी प्रयास का भी श्रेय जाता है। शायद यही कारण है कोसी प्रमंडल डाॅ बोस को हिन्दी पत्रकारिता का भीष्म पितामाह तस्लीम करने से गुरेज नहीं करता 2008 के भीषण कोसी बाढ़ को अपनी पत्रकारिता के बल पर राष्ट्रीय आपदा घोषित करवाने को कई मंचों पर जहां तत्कालीन सांसद शरद यादव ने कई मंचों पर स्वीकार किया वहीं इस क्षेत्र को कभी दो बड़े प्रतिद्वंदी आनंद मोहन और पप्पू यादव को को जोड़ने का श्रेय भी उन्हीं को जाता है जिसे खुद इन दो बड़े नेताओं ने अपने संबोधन में स्वीकार भी किया है। हिंदी पत्रकारिता के सभी प्रारूपों को बोस दा ने समृद्ध किया:-हिन्दी पत्रकारिता का ऐसा कोई हिस्सा नही जिसे डाॅ. बोस ने समृद्ध नही किया हो। समय की रफ्तार के साथ डाॅ. बोस की तुती पत्रकारिता के सर चढ़कर बोलती रही। पत्रकारिता महाविद्यालय, दिल्ली से पत्रकारिता की गुर सीखने वाले डाॅ बोस अपनी प्रतिभा का लोहा कोसी प्रमंडल में हिन्दी के प्रायः सभी दैनिक पत्रों के चर्चित ब्यूरो प्रभारी, बंगला, अग्रेजी सहित कई भाषाओँ के समाचार पत्रों के संवाददाता के अलावा युएनआइ, आकाशवाणी, सहारा समय, बीबीसी, दूरदर्शन में ही नहीं मनवाया बल्कि चर्चित पत्रिकाओं खासकर संस्कार, रुपक, पाञचजन्य, लोक त्रांत्रिक चैखंभा साप्ताहिक पत्रिकाऐं रविवार, इंडिया टूडे, चौथी दूनिया, नई दूनियां जैसे अनगिनत पत्र पत्रिकाओं को कोसी को जिम्मेदाराना क़यादत को अंजाम तक पहुंचाया। संघर्षों में गुजरी डॉ बोस की जिंदगी:-हवाओं के रुख को अपनी कलम की नोक पर बदलने की कला में महारथ हासिल डॉ देवाशीष बोस का जन्म 22 दिसम्बर 1962 को मधेपुरा के नरेन्द्र कुमार व शिक्षिका शेफाली बोस के आंगन में हुआ था।                                   तीन भाई और एक बहन में चौथे स्थान पर रहे डाॅ बोस के जन्म से पहले ही सर से पिता का साया उठ गया था, लेकिन मां शेफाली बोस ने जन्म के बाद बालक देवाशीष की परवरीश में कोई कमी नही रखी, जहां एक तरफ उन्होने बखुबी एक आदर्श माँ की भुमिका निभाई वहीं बालक देवाशीष को कभी पिता की कमी महसूस नहीं होने दी। एक आदर्श मां के साथ-साथ माता शेफाली बोस अपने समय में जिले की चर्चित शिक्षिका रही शायद इसी का प्रभाव था कि बाल्यकाल से ही संघर्षो के बीच आगे बढ़े देवाशीष बोस ने मधेपुरा के अपने सोच से प्रतिकूल परिवेश में अपनी चट्टानी निश्चय के बल पर खुदको उस मुकाम पर स्थापित किया जिसकी कल्पना भी आज के दौर के पत्रकारों के लिए एवरेस्ट की चढ़ाई जैसी टेढ़ी खीर है। सम्पूर्ण जीवन में सोच संकल्प और सफलता की कड़ी बनाने वाले बोस दा की सोच का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अपने छात्र जीवन से ही खोजी पत्रकारिता सरीखे जोखिम कार्य को गले लगा पत्रकारिता के माध्यम से समाज में नई अलख जगाने को निकल पड़े थे। यह वह दौर था जिस समय कोसी में पत्रकारिता का कोई बड़ा आधार नहीं था। इसका मूल कारण शायद बोस की वो सोच थी जिसमें उनका मानना था कि किसी आदर्श इंसान की तलाश कर आगे बढ़ने से बेहतर खूद आदर्श बनकर दूसरे की तलाश को आसान कर देना। आधे दर्जन भाषाओं के जानकार और विभिन्न गुणों में प्रवीण रहे बंगाली बाबू देवाशीष बोस:-छात्र जीवन से ही एनसीसी, एनएसएस, स्काॅउट एण्ड गाईड में जैसे महत्वपूर्ण संगठनों में विशेष पहचान रखने वाले देवाशीष बोस हमेशा दस्तूर के कायल रहे। हिन्दी, बंगला, मैथली, भोजपुरी, अंगिका, अग्रेजी पर समान पकड़ के साथ इतिहास, अंग्रेजी व हिन्दी में एमए कर अपनी तालिमी सलाहियत को और ऊंचाई दी। लोग बताते हैं कि अपने संपूर्ण जीवन में संघर्ष के पर्यायवाची रहे देवाशीष बोस ने 74-77 के जेपी आंदोलन में बुलंद हौसलों के साथ हिस्सेदारी भी दी थी। मधेपुरा जिला बनाओ, विश्वविद्यालय बनाओ जैसे आंदोलनों को अंजाम तक पहुंचाने वालों में भी अग्रिम पंक्ति के नाम रहे। जिले के प्रथम सरकारी मान्यता प्राप्त पत्रकार का गौरव रखने वाले डाॅ बोस ने पत्रकारिता में लगभग चार दशक के अनुभव के साथ-साथ महाविद्यालय में अध्यापन व वकालती पेशे में दो दशक के लम्बे अनुभव के अलावा समाजसेवा विभिन्न आयामों को नई दशा व दिशा प्रदान की।स्थानीय से अंतराष्ट्रीय स्तर पर डॉ बोस की प्रतिभा हुई सम्मानित:-अपनी अद्भूत व अद्वितीय प्रतिभा के बल पर डाॅ बोस को अन्तराष्ट्रीय मैथिली सम्मेलन 2008 में अन्तराष्ट्रीय मिथिला विभूति सम्मान, 2008 में आकाशवाणी सर्वोत्तम पत्रकार का सम्मान,1993 में राजेन्द्र माथूर कूल कलाधर की उपाधि, इसी वर्ष विद्या वाचस्पति सम्मान के अलावा दर्जनों सम्मान से उन्हे नवाजा गया। डाॅ देवाशीष बोस के कद का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अपने जीवनकाल में जिले का ऐसा कोई प्रशासनिक, न्यायिक व समाजिक मंच नहीं रहा जिसने डाॅ बोस को जगह देकर खूद को गौरवांवित ना हुआ हो। विभिन्न देशों में डॉ बोस को चाहने वालों में शामिल रहे कई बड़े नाम:-विभिन्न रुपों में भारत सरकार के शांतिदूत बनकर नेपाल, भुटान, बंगलादेश व श्रीलंका जाकर डाॅ बोस ने सिर्फ भारत सरकार की उद्देश्य की सार्थकता को ही सिद्ध नहीं किया बल्कि मधेपुरा सहित कोसी की पहचान को एक नया मुकाम भी दिया। डाॅ बोस की प्रतिभा की धमक ही थी कि उनके चाहने वाले भारत ही नहीं बल्कि मुल्क की शरहद को पारकर अनेकों देशों में मौजूद थे। जिसमें बंगलादेश में शेख हसीना की सरकार में मंत्री रहे जुनैद अहमद पालक, श्रीलंका के तत्कालित स्पीकर विशील राजपक्षे, नेपाल के महामहिम रहे डाॅ राम वरण यादव, नेपाल के ही सांसद डाॅ चन्द मोहन यादव जैसी शख्शियत भी शामिल थे। बिहार बंगाली समिति के प्रदेश सचिव, वाईएचएआई व पीयुसीएल के प्रदेश उपाध्यक्ष, जर्नलिस्ट युनियन ऑफ़ बिहार के प्रदेश महा सचिव, युथ हाॅस्टल एसोसिएशन ऑफ इंडिया के बिहार इकाई के अध्यक्ष सहित विभिन्न संगठनों के प्रमुख पदों पर रहे। हर वर्ग के लाडले थे डॉ देवाशीष बोस:-मधेपुरा में पहली बार राज्यपाल को लाने और नेताजी सुभाष चंद्र बोस प्रतिमा स्थापित करने वाले देवाशीष बोस आखिरी सांस तक हर बात से ऊपर समाज के अलग-अलग वर्गों को बड़े पैमाने पर लाभांवित किया। अपने अदभूत आचरण व नेकदिली के कारण जिले में डाॅ बोस सिर्फ बंगाली समुदाय ही नहीं बल्कि अलग-अलग समूदायों के लोगों के दिलों पर भी अपनी अमीट छाप छोड़ी। शायद यही कारण था कि उनके शव यात्रा में क्या हिन्दू क्या मुस्लिम, क्या बच्चे क्या बूढ़े सबकी भीड़ उमड़ पड़ी। मानो ऐसा लगा कि डाॅ बोस की सम्मान में मधेपुरा ठहर सा गया हो। यद्यपि यह सत्य है कि डाॅ बोस के जीवन का सफर 22 दिसम्बर 1962 से शुरू होकर इसी वर्ष 21 अगस्त 2016 को हमेशा -हमेशा के लिए थम गया तथापि उनकी यादें अलग-अलग रुपों में आज भी अपनी मौजूदगी की दास्तां को बयां करती है। बेशक बोस दा को गुजरे आठ साल हो गए हों लेकिन इतना तो तय है कि मधेपुरा जब भी अपने इतिहास के आइने में खूद को तलाशेगा तब डाॅ बोस की कृतित्व और व्यक्तित्व की निशानियां जिले को अपने आप पर नाज करने को विवश कर देगी। 63 वीं जयंती पर नमन पत्रकारिता, वकालत, उद्घोषणा, समाजसेवा के उस हस्ताक्षर को जिसके जीवन के आखिरी पड़ाव तक हर पग में सोच, संकल्प, सफलता पर्याय बनी। आप सदैव आदरणीय रहेंगे देवाशीष बोस दा।

 

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